Wednesday, March 28, 2012

रो रो कर पुकारती है माटी अपने बेटों को

शहर नक्शों में नहीं दिलों में बसा करते हैं और जब इसके बाशिंदे इससे बिछड़ जाते हैं तो टूटे रिश्तों की तरह सालते हैं । फतेहपुर की भी कहानी इसी टूट कर बिखरी माला की मानिंद नजर आती है जिसके मनके एक दूसरे से जुदा होकर कोने कोने में बिखर गए हैं । देश के प्रख्याततम उद्योगपतियों की इस जन्म स्थली की बदकिस्मती है की देश के अनेक महा नगरों को अपना कर्म क्षेत्र बनाने वाले प्रवासी बंधुओं ने आज अपनी जन्म भूमि को मात्र मंगलोत्सवों तक सीमित कर दिया है ।
यहाँ के सेठ साहूकारों ने कस्बे की पहचान को कायम रखते हुए तत्कालीन समय में एक से बढ़कर एक भव्य हवेलियों का निर्माण करवाया । नवाबों के शासनकाल में भी यहाँ कई ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करवाया गया था । लेकिन आज ये बदहाल स्थिति में खड़ी अपने निर्माताओं को कोस रही है ।

नवाब फ़तेह खाँ की ओर से बनाया गया ऐतिहासिक गढ़ आज खँडहर का रूप ले चुका है तो नवाब जलाल खॉँ की ओर से बनाई गयी बावड़ी कचरा गृह बन कर अतिक्रमण की भेंट चढ़ती जा रही है । नवाब अलीफ खाँ के समय में बना मकबरा भी प्रशासनिक उपेक्षा के कारण अपना मूल स्वरूप खो रहा है । कस्बे के सेठ साहूकारों ने अपनी जन्म भूमि में एक से बढ़कर एक जनकल्याण के कार्य किये मगर उन सेठ साहूकारों की युवा पीढी ने अपने पुरखों की विरासत को बिसरा सा दिया है । सेठ साहूकारों ने भित्ति चित्रों से सजी हुई भव्य हवेलियों का निर्माण करवाकर कस्बे को विश्वभर में ओपन आर्ट गेलेरी का नाम दिलाया । लेकिन अब इन हवेलियों को बेचा जा रहा है तो खरीदने वाले इन्हें तोड़कर मिट्टी में दफ़न कर रहे हैं ।
कस्बे की इस अनमोल विरासत के संरक्षण को लेकर राज्य सरकार की उपेक्षा के कारण वर्त्तमान में वास्तु शिल्प की अद्भुत कला व भित्ति चित्रों से अटी हवेलियों की दुर्दशा हो रही है । इनके चित्र बदरंग हो रहे हैं और  हवेलियाँ कॉम्प्लेक्स का रूप ले रहीं हैं । सरकार ने शहर को हैरिटेज सिटी का दर्जा देकर सौंदर्यीकरण  के नाम पर लाखों रुपये भी खर्च किये मगर जब तक इन हवेलियों का संरक्षण नहीं होता तब तक हैरिटेज सिटी का सौंदर्यीकरण  नहीं हो सकता है । बहुत बड़ी विडम्बना है कि जहां इन हवेलियों के मालिक इन्हें कंकरीट के जंगलों में तब्दील करने पर आमादा हैं वहीं यहाँ की अनोखी विरासत , कला व संस्कृति से प्रेरित होकर फ्रांस की नादीन ली प्रिन्स ने यहाँ हवेली खरीद आर्ट गैलेरी की स्थापना कर रखी है  । इन हवेलियों में  भित्ति चित्रों, कला व संस्कृति पर शोध करने विदेशी विद्यार्थी अक्सर आते रहते हैं । साफ़ है कि आज भी पर्यटन एवं ऐतिहासिक दृष्टि से फतेहपुर में अनेक संभावनाएं मौजूद है बस जरूरत है तो पहल करने की ।

Friday, December 17, 2010

गायब हो गया दादूद्वारा

सुंदरदासजी ऩे जिस स्थल पर बैठकर श्रेष्ठ 48 ग्रंथों की रचना की थी, वह फतेहपुर का दादू द्वारा अपनी पवित्रता खो चुका है | लगातार यह स्थल अपनी पहचान खोता जा रहा है तथा भूमाफियाओं की गिध दृष्टी इस स्थल को नेस्तानावूद करने पर तुली हुई है | दादू द्वारे को एक हॉस्टल के रूप में प्रयुक्त कर एक ओर जहाँ उसकी पवित्रता को नष्ट किया गया है वहीँ दादू द्वारे के भीतर जगह जगह दादूपंथियों के स्मृति स्थल थे, उन्हें समाप्त किया जा रहा है | दादू पंथ का एक जीता जागता इतिहास यहाँ काल के कराल पन्नो पर फडफडा रहा है | 
सुन्दरदास जी को यहाँ प्रयागदास लेकर आये थे | स्वयं प्रयागदास एक उच्च कोटि के कवि थे, उन्होंने स्वयं पच्चीस हज़ार से ज्यादा पद्य लिखकर अक्षय कीर्ति पाई थी | बाद की पीढ़ी में चातार्दास, हरिदास, भीखजन जैसे कितने ही मालूम ना मालूम संतों की यह कर्मस्थली रही ,इस पवित्र स्थल पर बैठ सैंकड़ों की संख्या में मौलिक ग्रन्थ लिखे गए तथा सुन्दरदास के ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ समय समय पर तैयार करवाई गयीं | कहने वाले लोग कहते हैं- कल तक यहाँ बोरियाँ भरी जा सके, इतने अनमोल ग्रन्थ हुआ करते थे, पर आज उन ग्रंथों का क्या हुआ? कौन ले गया इस अप्रकाशित सम्पदा को, इसका ठीक ठीक जवाब किसी  के पास नहीं है| लोग निरंतर इस द्वारे की अक्षय सम्पदा को बेच-बेच कर खा रहा है |  जब शहर के बौद्धिक लोगों का जन सम्पदा के बारे में सरोकार नहीं रहता है तो यही हश्र हुआ करता है | एक भू चोर के लिए तो दादू दारे की ज़मीन भी उसी महत्व की है जैसी एक सामान्य नोहरे क़ि ज़मीन | उसे संतों की विरासत से क्या लेना देना ? पैसे को आखिरी सत्य मानने वाले लोगों  के लिए धरोहर की संस्कृति कोई मायने नहीं रखती | जैसे कुए बावड़ियाँ बेचीं जा सकती हैं वैसे ही मंदिर दादू द्वारे भी बेचे जा सकते हैं | आँखों पर पट्टी बाँध कर अधर्म का काम करने वाले लोगों  के लिए कुछ भी दूभर नहीं है | कुछ शताब्दियों पूर्व यहाँ का दादू द्वारा अपनी विशालता के लिए विख्यात था, पर नियंत्रण हटते ही यह धरोहर विभिन्न गिद्ध दृष्टि वाले लोगों ऩे हड़प ली | अब शोध करने के बाद भी यह पता लगाना मुश्किल है की कौन जगह प्रयागदास की समाधि है और कौन जगह हरिदास की तो कौन जगह अन्य संतों की | संरक्षण के अभाव में लोगों ऩे समाधियों को उखाड़ फेंका और अपने नोहरे, प्रतिष्ठान, घर कायम कर लिए | इस लूट में जिसको जो मिला वही उसका मालिक हो गया | 
फतेहपुर निरंतर एक उपेक्षित शहर की पहचान बनाता जा रहा है | यहाँ किसी को उपरोक्त तरह के काम करने की फुर्सत नहीं है " होने दो- जो नष्ट हो रहा है तो हम क्या करें"| यह यहाँ के वासिंदों का आदर्श उदघोष वाक्य है | सुन्दरदास के बहुत थोड़े से ग्रन्थ प्रकाशित हो पाए थे , बाकी सभी ग्रन्थ तथा चतुर्भुजदास एवं प्रयागदास के ग्रन्थ तो अप्रकाशित ही थे | इसी प्रकार के बाद के कवि जो यहाँ रहे , उनके ग्रन्थ भी यहीं थे | आज शोधार्थियों को उपरोक्त सभी संतों पर काम करने पर निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि इनकी मूल हस्त लिखित ग्रन्थ सामग्री खुर्द-बुर्द हो गयी| सुन्दरदास के परम सखा प्रयागदास भी श्रेष्ठ कवि थे | आज उन पर शोध खोज किये जाने की आवश्यकता है, पर सामग्री के अभाव में यह कार्य संभव नहीं है | दादूपंथी एक बौद्धिक जमात थी, इसके सभी संत बुद्धिमान एवं साहित्य रचनाधर्मी थे | धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर उन्होंने यहाँ बैठकर अनेक ग्रंथों की रचना की | दूर-दूर हलकों के दादूपंथी साधू , तत्कालीन समय के इस विख्यात दादू द्वारे में रहने के लिए आया करते थे | आज़ादी से पूर्व जब यहां दादू द्वारे के एक हिस्से पर एक बनिए द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया तो समूचे फतेहपुर शहर की तरफ से इसका विरोध हुआ तथा इस मुद्दे पर प्रख्यात पत्रकार, इतिहासज्ञ एवं लेखक पंडित झाबरमल शर्मा ऩे कलम चलाई | उसके बाद दादुद्वारे की पैरोकारी करने वाला कोई नहीं रहा और पच्चीस बीघे में फैला दाद द्वारा अब पच्चीस गुना पच्चीस फीट में भी नहीं रह गया है | फतेहपुर पर्यटकों की नगरी है | राजस्थान के पर्यटक नक़्शे में वह एक प्रमुख स्थान रखता है | अगर संत सुन्दरदास के इस भक्ति स्थल को कबीर-मीरां आदि के स्थलों की भांति राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाए तो नगर में एक अन्य आकर्षण हो सकता है | दादू दयाल के शिष्य सुन्दरदास शुरू से ही एक भ्रमणशील व्वाक्ति थे | वे एक जगह बहुत कम रहे, पर फतेहपुर में उनका निवास काल सर्वाधिक लम्बा था क्योंकि ग्रन्थ रचना के लिए उन्हें यह स्थल और यहाँ का पर्यावरण अत्यधिक उत्तम लगा | यहाँ रहने के कारण उनकी खड़ी बोली में शेखावाटी राजस्थानी का असर भी दिखाई देता है | कितने ही पहलु हैं जिन पर आज शोध खोज की अत्यंत आवश्यकता है | फतेहपुरवालों को अपनी इस भक्तिमय विरासत पर गर्व करना चाहिए, उन्हें बढ़ चढ़ कर बोलना चाहिए की महाकवि तुलसी के समान प्रसिद्धि रखने वाले कवि सुन्दरदास ऩे हमारे नगर में रहकर अपनी चिंतन सरणी को काव्य रचना के रूप में विराम दिया | काश, वे सारे ग्रन्थ यहाँ होते तो यहाँ का महत्व किसी राष्ट्रीय संग्रहालय से कम न होता |

Sunday, October 17, 2010

मरा नहीं है अभी मेरा फतेहपुर

लोगों का मानना है क़ि 600 वर्ष पुराना फतेहपुर अब मर चुका है. सेठ साहूकारों की इस नगरी में न जाने कितनी कलाएं पनपीं और परवान चढ़ी. कितने कलाकार, कवि और हुनरमंद लोग दिए इस नगर ने, पर लगभग तीन दशक से यह शहर खोखला होने लगा है. इसके घुन किसने लगायी, यह एक यक्ष प्रश्न है? 

पुरातात्विक धरोहर से सम्पन्न इस शहर को शहरवासी ही लूटने को आमादा हो गए | श्रेष्ठ संतों की नगरी में असुरी प्रवृत्तियां तेजी से पनपने लगी और आज भी तेजी से पाँव पसार रही हैं. भ्रष्टाचार का अजगर सारे शहर को लीलने को तैयार है. लक्ष्मीनाथ जी, बुद्धगिरी जी और अमृतनाथ जी इसे टुकुर-टुकुर देख रहे हैं. प्रवासी जन प्रवास में मस्त हैं. यहाँ नौकरी पेशा लोग अपने घरों में मस्त हैं. शहर को ध्वस्त करने वाले लोग अपनी कारगुजारी में मस्त हैं. शहर की सुध कौन ले? इसकी गलियां रोजाना संकुचित हो जाती हैं और नरक की भांति सड़ रही हैं. कब्जे करने वालों ने मंदिर, कुँए बावडियों को भी नहीं बख्शा | आपा धापी की इस रामारोळ में नगरपालिका जैसी नगर सुधार की संस्था कान में उंगली डाल कर सो गयी है. पार्षदों को परस्पर 'उतर भीखा म्हारी बारी' का खेल खेलने से ही फुर्सत नहीं है | 

वस्तुतः फतेहपुर मरा नहीं है. इसे कुछ लोग मारने के प्रयत्न में जुटे हैं, उन्होंने शहर को बीमार कर छोड़ा है | क्या फतेहपुर की बीमारी लाइलाज है ? क्या इसका स्वस्थ सांस्कृतिक स्वरुप लौटाया नहीं जा सकता ? ये प्रश्न अगर यहाँ के थोड़े से भी वाशिंदों के मन में उगने लगे तो फतेहपुर क्षय मुक्त हो सकता है. गत वर्षों में यहाँ अंधाधुंध लोग बाहर से आकर बसे हैं, नौकरियां करने वाले लोग आयें हैं, आस पास के देहातों से लोग व्यापार करने यहाँ आकर बस गए पर दुर्भाग्य यह है क़ि वे लोग केवल इस शहर का दोहन करना जानते हैं. उनमें से अधिकाँश का शहर से कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं है, शहर से किसी प्रकार का कोई लगाव नहीं है, शहर की दुर्दशा पर अफ़सोस नहीं है और शहर के रचनात्मक कार्यों में उनकी भागीदारी नहीं के बराबर है | कुछ पुराने बुद्धिजीवी जो कुछ करने की मन में टीस रखते हैं, अपना तन मन धन देकर प्रवासियों को यहाँ पैसा लगाने के लिए प्रेरित करते हैं , उन्हें भी मौकापरस्त स्वार्थी लोग बदनाम करने की कोशिश करते हैं और उनके कामों में अड़चन पैदा करते हैं जिससे उनका भी हौसला धीरे धीरे टूटता जा रहा है तथा वो भी इस ढंग की गतिविधियों से परे हटते जा रहे हैं |इसका जीता जागता उदाहरण है बंद पड़े बूबना वाटर वर्क्स, सिंघानिया वाटर वर्क्स, बाजोरिया वाटर वर्क्स, भरतिया अस्पताल, बाजोरिया पाठशाला तथा जीने की आकांक्षा रखते पोद्दार अस्पताल और केडिया हॉस्पिटल, सूर्यमंडल, चमडिया वाटर वर्क्स, चमडिया स्कूल, चमडिया कालेज, चमडिया आयुर्वेदिक हॉस्पिटल, बूबना आई हॉस्पिटल, पिंजरापोल गौशाला और ना जाने कितनी ही संस्थाएं जिन पर स्वार्थी तत्वों की गिद्ध दृष्टि जमी है |

अभी भी इस शहर में कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है, उनकी इच्छा शक्ति में कोई कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ हाथ से हाथ मिलाने की | यहाँ के कार्यकर्ता अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और अपनी माटी से लगाव के चलते प्रवासियों को प्रेरित कर उनके सहयोग से आज भी नगर को नयी पहचान दिलाने की लड़ाई लड़ रहें हैं जिसका जीवंत उदाहरण है गोयनका सती मंदिर, श्री बुद्धगिरि जी की मढी, हालिया निर्मित गणेश मंदिर और मोहनलाल मोदी हॉस्पिटल | ये सभी वे नाम हैं जिन्होंने अपने कार्यकर्ताओं के बल पर अल्प समय में ही अपनी पहचान आस पास के क्षेत्र में कायम की है और आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं | फतेहपुर वासियों, जागो, इस मरते हुए शहर को जीवन दो. गर्व से कहो हम अपने शहर को मरने नहीं देंगे |
                                                                                                                          - देवकीनंदन ढ़ाढणिया

Sunday, October 10, 2010

रो रही है हवेलियाँ

ऊँचे-ऊँचे रेत के धीरे,तेज धूप के साथ सर्पिनी सी नज़र आने वाली सड़क से हम आपको लिए जा रहे है जयपुर से उत्तर पूर्व में लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर फतेहपुर शेखावाटी में | यहाँ की भव्य और कलात्मक हवेलियाँ आज भी किसी तारणहार की बाट जोह रही हैं  |  वीरान पड़ी रहने वाली हवेलियों में  प्रतिस्थापन की  सुगबुगाहट तो जागने लगी हैं लेकिन अभी  भी हालत ऊँट के मुंह में जीरे के सामान है | पेरिस के एक विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नादीन ली प्रिंस 20 सालों से यहाँ हवेलियों के संरक्षण में जुटी हैं | नादीन ऩे रामगढ रोड पर एक हवेली का जीर्णोद्धार करा उसमें आर्ट गेलेरी भी खोल रखी  है |    

निकटवर्ती झुंझुनू के मंडवा कस्बे में करीब लगभग बीस साल पहले जब ठाकुर केसरी सिंह ऩे अपने गढ़ और हवेली को पर्यटकों के लिए नए अंदाज में खोला तो उनके प्रयास पर्यटकों को लुभाने में कामयाब रहे | पर्यटकों को स्थापत्य कला को देखने के अलावा सुख-सुवधाएँ भी मिलने लगीं तो उनकी संख्या भी दिन-ब-दिन बढ़ने लगी | पर्यटकों की इस क्षेत्र में बढती आवाजाही के चलते माहौल बदलने लगा और  आस पास कई बड़ी होटलें,रिसोर्ट्स,रेस्टोरेंट्स खुलने लगे | इससे यहाँ की प्राचीन स्थापत्य कला तो संरक्षित हुई, साथ ही लोगों को रोजगार के अवसर भी मिले और  क्षेत्र का विकास हुआ सो अलग | कुल मिलाकर मंडावा के इस बदले रूप ऩे वहां की तस्वीर ही बदल डाली | मंडावा पर्यटकों को किस कदर रास आ रहा है, इसका अंदाजा यहाँ आने वाले पर्यटकों की तादाद से लगाया जा सकता है | यहाँ के लोगों ऩे हवेलियों का इस तरह से कायाकल्प किया है की पर्यटक अपने आप को रोक नहीं पाते | पाँच बड़ी और पुरानी हवेलियों को हैरिटेज लुक दिया गया है | जहाँ इक्का-दुक्का पर्यटक यहाँ आता था, वहीँ अब लगभग सभी हवेलियाँ पर्यटकों से भरी रहती हैं | बाजार विकसित हो गए, गांवों में रोजगार बढ़ गए | ज्यादातर पर्यटक यहाँ की फ्रेस्को पेंटिंग और हवेलियों की स्थापत्य और वास्तु कला देखने के लिए आते हैं | गौरतलब है क़ि  इस तरह की पेंटिंग भारत के अलावा सिर्फ इटली में ही देखी जा सकती है | इन हवेलियों को देखने के यूँ तो दुनियाभर से पर्यटक आते हैं, पर उनमे भी अधिकतर स्पेन,फ्रांस और इटली से आते है | हवेली व्यवसाय उद्योगपतियों  को कितना रास आ रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की जाने माने ओबेरॉय समूह ऩे यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी | कई बड़े उद्योग समूह और व्यवसायी यहाँ  होटल खोलने में दिलचस्पी ले रहे हैं | 

मंडावा के अलावा फतेहपुर, रामगढ़,नवलगढ़ और लक्ष्मणगढ़ में भी सैंकड़ों मनमोहक हवेलियाँ हैं | पर्यटकों की बढती संख्या देख कर भी हवेलियों के मालिक भी इनकी सुध लेने से बेसुध बैठे हैं |  शायद सभी हवेलियाँ खुशनसीब नहीं हैं | जहाँ सालों पहले बिडला से लेकर गोयनका,खेतान,मोदी,मित्तल, सिंघानिया,बजाज, पोद्दार,नेवटिया,गनेडीवाल,देवडा, केडिया,भरतिया, चमडिया, डालमिया परिवारों के वंशजों की किलकारियां गूंजती थीं,वहीँ आज इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है | कहते हैं नगर सेठों की विशाल हवेलियों में कभी नौकरों चाकरों के परिवार का इतना हुजूम रहता था क़ि इन हवेलियों की रसोई दिन के आठों पहर कड़ाही कूंचिये की आवाजों से गुलजार रहती थी  और आज हालत यह है क़ि इन हवेलियों के कमरों पर लगे तालों के जालों तक को साफ़ करने वाला कोई नहीं है |  कुछ केवल चौकीदारों के भरोसे चल रहीं हैं तो कुछ पर सिर्फ ताले लटक रहे हैं | हवेलियाँ कहीं प्रशासन की उपेक्षा का शिकार बनी हुई हैं तो कहीं अतिक्रमण और भूमाफियों के चंगुल में फंस कर रह गयीं हैं | इन सबके बावजूद भी यह एक ऐसी संपत्ति है, जिस पर अगर ध्यान दिया जाए तो पर्यटकों को चुम्बक की मानिंद अपनी ओर खींच सकती है  | हवेलियों का पुनर्स्थापन अपनी पारंपरिक धरोहर को तो संरक्षित करेगा  ही साथ ही साथ क्षेत्र के सरपट विकास में भी महती भूमिका निभाएगा, अब इन्तजार तो बस इस बात का है क़ि ये कुम्भ्करणी नींद कभी टूटेगी या फिर इस अनमोल धरोहर को अपने साथ ले डूबेगी | 

Wednesday, September 15, 2010

मोरा पिया मोसे बोलत नाँही

हालिया रिलीज फिल्म राजनीति का यह प्रसिद्ध गीत सुनकर मुझे ऐसा लगा मानो ये गीत फतेहपुर की सूनी पडी हवेलियों के लिए ही लिखा गया है | कभी रजवाडी शान औ शौकत की पर्याय रही ये हवेलियाँ अपने चिर यौवन काल में सेठों और नौकरों चाकरों से भरी पडी रहती थी | नगर सेठों की शान की प्रतीक एक से एक नयनाभिराम हवेलियाँ सुर्ख लाल जोड़े में सजी दुल्हन सी अपनी रंगत पर कभी इतराती थी, कभी शर्माती थी, किन्तु आज इन्हें देख कर ऐसा लगता है मानो सर से पाँव तक सफ़ेद साड़ी  पहने अपने वैधव्य को कोस रही हों |


इतिहास की पृष्ठ भूमि में जाकर टटोले तो व्यापारिक उद्देश्य से धीरे धीरे एक एक करके सभी हवेलियों के सेठ महानगरों में जाकर बसते रहे और हवेलियाँ सूनी होती रहीं |  जब तक वे सेठ खुद ज़िंदा थे, उनका मोह यहाँ की मिटटी में बरकरार था किन्तु शनै - शनै तीन चार पीढियां गुजर जाने के बाद आज की जेनरेशन में वह मोह लुप्त हो गया है | आज की वह जेनरेशन जिनके  परिवार को अपनी माटी छोड़े तीन चार पीढियां गुजर चुकी हैं, उन्हें यहाँ के रेतीले टीले और कच्ची गलियाँ  अब सुहाते नहीं हैं | अपनी जन्म भूमि में आना  उन्हें जी का जंजाल सा लगने लगा है | साल में एक या दो बार जब उन्हें समय मिलता भी है तो वे इधर का रुख करने की बजाय किसी विदेशी पर्यटन स्थल पर जाना अधिक पसंद करते हैं | 

हालिया दिनों में यहाँ से गए लोगों में जरुर माटी का मोह बरकरार है लेकिन तीन चार पीढियां गुजरने के बाद कमोबेश यही हालत उनके परिवार की भी होनी है | अगर इस दशा से बचना है तो जल्द ही इस दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे अन्यथा  सूनी पडी हवेलियाँ पथराये नैनों से बाट जोहती मानो हमेशा यही कहती रहेंगी 
' मोरा पिया मोसे बोलत नाँही ' |

Saturday, September 4, 2010

भादी मावस पे खुलती हैं हवेलियाँ

समूचा शेखावाटी संभाग  कलात्मक हवेलियों के कारण पुरे विश्व में प्रसिद्ध रहा है. यहाँ का पर्यटन व्यवसाय केवल इन हवेलियों पर ही टिका हुआ है. अगर ये हवेलियाँ यहाँ नहीं रही होती तो कोई विदेशी यहाँ रूद्र, नीरस,तप्त हरियाली विहीन क्षेत्र में आना पसंद नहीं करता. राजस्थान के पर्यटन नक़्शे से यह भाग कटा हुआ होता. जो भी विदेशी सैलानी यहाँ आता है, निरंतर भग्न होती जा रही इन हवेलियों के कलात्मक वैभव को निहारता है, प्रसन्न होता है, फिर इस अनोखी धरोहर के क्षरण पर अफ़सोस प्रकट करता है. वह कहता है- सरकार और नागरिको को इस अनमोल धरोहर को बचाना चाहिए, वे इस ओर तत्पर क्यों नहीं है? कतिपय सैलानी किसी हवेली के बाहरी दृश्यों पर मुग्ध होने के बाद उसे भीतर से देखने क़ि इच्छा प्रकट करता है, किन्तु वह ताले के पार बंद हवेली को देख नहीं सकता. वह पूछता है यहाँ के गाइडों को क़ि यह हवेली कब खुलेगी? तो जवाब मिलता है- भादी मावस को. भाद्रपद क़ि अमावस्या के दो दिन पहले हवेली खुल भी सकती है- ऐसा विश्वास यहाँ के स्थानीय वाशिंदों को रहा है. 

कई बार यह विश्वास टूट भी जाता है- भादी मावस को भी हवेली मालिक सेठ नहीं आता है. अगर कोई हवेली मालिक आता भी है तो वह हवेली के भीतर के तालों क़ि जांच करने के लिए आता है. प्रवास में ए. सी. में रहने वाले हवेली मालिको के लिए हवेली का घुटन और उमस भरा वातावरण असहनीय होता है. इसलिए यहाँ आकर भी अत्याधुनिक भवनों में रुकते है. बहुत थोड़े से लोग ऐसे भी है जो अपनी हवेली में ठहरना पसंद करते हैं. ये हवेलियाँ वे हैं जिनमे चौकीदार अथवा मुनीम क़ि व्यवस्था है. कैसी विडम्बना है क़ि कुछ ही दशक पूर्व जिन हवेलियों में जीवन स्पंदित होता था,वे अब नितांत सूनी हैं तथा अपने मालिकों क़ि उपेक्षा का भार ढो रही हैं. उनके पलस्तर दिख रहे हैं. सूअर सेंध मार कर रहे हैं. चोर कोरनी किये हुए बहुमूल्य दरवाजे चुरा कर ले जा रहे हैं. कहना उचित नहीं होगा- घोर अवहेलना क़ि शिकार यह धरोहर थोड़े ही अरसे में सिमट जानी है और इसकी जगह सीमेंट कंकरीट का जंगल उग जाएगा. कितनी अच्छी हवेलियों की जगह आज व्यवसायिक कोम्प्लेक्स बन गए हैं. यही नियति दूसरी हवेलियों की होनी है.