Sunday, October 17, 2010

मरा नहीं है अभी मेरा फतेहपुर

लोगों का मानना है क़ि 600 वर्ष पुराना फतेहपुर अब मर चुका है. सेठ साहूकारों की इस नगरी में न जाने कितनी कलाएं पनपीं और परवान चढ़ी. कितने कलाकार, कवि और हुनरमंद लोग दिए इस नगर ने, पर लगभग तीन दशक से यह शहर खोखला होने लगा है. इसके घुन किसने लगायी, यह एक यक्ष प्रश्न है? 

पुरातात्विक धरोहर से सम्पन्न इस शहर को शहरवासी ही लूटने को आमादा हो गए | श्रेष्ठ संतों की नगरी में असुरी प्रवृत्तियां तेजी से पनपने लगी और आज भी तेजी से पाँव पसार रही हैं. भ्रष्टाचार का अजगर सारे शहर को लीलने को तैयार है. लक्ष्मीनाथ जी, बुद्धगिरी जी और अमृतनाथ जी इसे टुकुर-टुकुर देख रहे हैं. प्रवासी जन प्रवास में मस्त हैं. यहाँ नौकरी पेशा लोग अपने घरों में मस्त हैं. शहर को ध्वस्त करने वाले लोग अपनी कारगुजारी में मस्त हैं. शहर की सुध कौन ले? इसकी गलियां रोजाना संकुचित हो जाती हैं और नरक की भांति सड़ रही हैं. कब्जे करने वालों ने मंदिर, कुँए बावडियों को भी नहीं बख्शा | आपा धापी की इस रामारोळ में नगरपालिका जैसी नगर सुधार की संस्था कान में उंगली डाल कर सो गयी है. पार्षदों को परस्पर 'उतर भीखा म्हारी बारी' का खेल खेलने से ही फुर्सत नहीं है | 

वस्तुतः फतेहपुर मरा नहीं है. इसे कुछ लोग मारने के प्रयत्न में जुटे हैं, उन्होंने शहर को बीमार कर छोड़ा है | क्या फतेहपुर की बीमारी लाइलाज है ? क्या इसका स्वस्थ सांस्कृतिक स्वरुप लौटाया नहीं जा सकता ? ये प्रश्न अगर यहाँ के थोड़े से भी वाशिंदों के मन में उगने लगे तो फतेहपुर क्षय मुक्त हो सकता है. गत वर्षों में यहाँ अंधाधुंध लोग बाहर से आकर बसे हैं, नौकरियां करने वाले लोग आयें हैं, आस पास के देहातों से लोग व्यापार करने यहाँ आकर बस गए पर दुर्भाग्य यह है क़ि वे लोग केवल इस शहर का दोहन करना जानते हैं. उनमें से अधिकाँश का शहर से कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं है, शहर से किसी प्रकार का कोई लगाव नहीं है, शहर की दुर्दशा पर अफ़सोस नहीं है और शहर के रचनात्मक कार्यों में उनकी भागीदारी नहीं के बराबर है | कुछ पुराने बुद्धिजीवी जो कुछ करने की मन में टीस रखते हैं, अपना तन मन धन देकर प्रवासियों को यहाँ पैसा लगाने के लिए प्रेरित करते हैं , उन्हें भी मौकापरस्त स्वार्थी लोग बदनाम करने की कोशिश करते हैं और उनके कामों में अड़चन पैदा करते हैं जिससे उनका भी हौसला धीरे धीरे टूटता जा रहा है तथा वो भी इस ढंग की गतिविधियों से परे हटते जा रहे हैं |इसका जीता जागता उदाहरण है बंद पड़े बूबना वाटर वर्क्स, सिंघानिया वाटर वर्क्स, बाजोरिया वाटर वर्क्स, भरतिया अस्पताल, बाजोरिया पाठशाला तथा जीने की आकांक्षा रखते पोद्दार अस्पताल और केडिया हॉस्पिटल, सूर्यमंडल, चमडिया वाटर वर्क्स, चमडिया स्कूल, चमडिया कालेज, चमडिया आयुर्वेदिक हॉस्पिटल, बूबना आई हॉस्पिटल, पिंजरापोल गौशाला और ना जाने कितनी ही संस्थाएं जिन पर स्वार्थी तत्वों की गिद्ध दृष्टि जमी है |

अभी भी इस शहर में कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है, उनकी इच्छा शक्ति में कोई कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ हाथ से हाथ मिलाने की | यहाँ के कार्यकर्ता अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और अपनी माटी से लगाव के चलते प्रवासियों को प्रेरित कर उनके सहयोग से आज भी नगर को नयी पहचान दिलाने की लड़ाई लड़ रहें हैं जिसका जीवंत उदाहरण है गोयनका सती मंदिर, श्री बुद्धगिरि जी की मढी, हालिया निर्मित गणेश मंदिर और मोहनलाल मोदी हॉस्पिटल | ये सभी वे नाम हैं जिन्होंने अपने कार्यकर्ताओं के बल पर अल्प समय में ही अपनी पहचान आस पास के क्षेत्र में कायम की है और आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं | फतेहपुर वासियों, जागो, इस मरते हुए शहर को जीवन दो. गर्व से कहो हम अपने शहर को मरने नहीं देंगे |
                                                                                                                          - देवकीनंदन ढ़ाढणिया

Sunday, October 10, 2010

रो रही है हवेलियाँ

ऊँचे-ऊँचे रेत के धीरे,तेज धूप के साथ सर्पिनी सी नज़र आने वाली सड़क से हम आपको लिए जा रहे है जयपुर से उत्तर पूर्व में लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर फतेहपुर शेखावाटी में | यहाँ की भव्य और कलात्मक हवेलियाँ आज भी किसी तारणहार की बाट जोह रही हैं  |  वीरान पड़ी रहने वाली हवेलियों में  प्रतिस्थापन की  सुगबुगाहट तो जागने लगी हैं लेकिन अभी  भी हालत ऊँट के मुंह में जीरे के सामान है | पेरिस के एक विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नादीन ली प्रिंस 20 सालों से यहाँ हवेलियों के संरक्षण में जुटी हैं | नादीन ऩे रामगढ रोड पर एक हवेली का जीर्णोद्धार करा उसमें आर्ट गेलेरी भी खोल रखी  है |    

निकटवर्ती झुंझुनू के मंडवा कस्बे में करीब लगभग बीस साल पहले जब ठाकुर केसरी सिंह ऩे अपने गढ़ और हवेली को पर्यटकों के लिए नए अंदाज में खोला तो उनके प्रयास पर्यटकों को लुभाने में कामयाब रहे | पर्यटकों को स्थापत्य कला को देखने के अलावा सुख-सुवधाएँ भी मिलने लगीं तो उनकी संख्या भी दिन-ब-दिन बढ़ने लगी | पर्यटकों की इस क्षेत्र में बढती आवाजाही के चलते माहौल बदलने लगा और  आस पास कई बड़ी होटलें,रिसोर्ट्स,रेस्टोरेंट्स खुलने लगे | इससे यहाँ की प्राचीन स्थापत्य कला तो संरक्षित हुई, साथ ही लोगों को रोजगार के अवसर भी मिले और  क्षेत्र का विकास हुआ सो अलग | कुल मिलाकर मंडावा के इस बदले रूप ऩे वहां की तस्वीर ही बदल डाली | मंडावा पर्यटकों को किस कदर रास आ रहा है, इसका अंदाजा यहाँ आने वाले पर्यटकों की तादाद से लगाया जा सकता है | यहाँ के लोगों ऩे हवेलियों का इस तरह से कायाकल्प किया है की पर्यटक अपने आप को रोक नहीं पाते | पाँच बड़ी और पुरानी हवेलियों को हैरिटेज लुक दिया गया है | जहाँ इक्का-दुक्का पर्यटक यहाँ आता था, वहीँ अब लगभग सभी हवेलियाँ पर्यटकों से भरी रहती हैं | बाजार विकसित हो गए, गांवों में रोजगार बढ़ गए | ज्यादातर पर्यटक यहाँ की फ्रेस्को पेंटिंग और हवेलियों की स्थापत्य और वास्तु कला देखने के लिए आते हैं | गौरतलब है क़ि  इस तरह की पेंटिंग भारत के अलावा सिर्फ इटली में ही देखी जा सकती है | इन हवेलियों को देखने के यूँ तो दुनियाभर से पर्यटक आते हैं, पर उनमे भी अधिकतर स्पेन,फ्रांस और इटली से आते है | हवेली व्यवसाय उद्योगपतियों  को कितना रास आ रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की जाने माने ओबेरॉय समूह ऩे यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी | कई बड़े उद्योग समूह और व्यवसायी यहाँ  होटल खोलने में दिलचस्पी ले रहे हैं | 

मंडावा के अलावा फतेहपुर, रामगढ़,नवलगढ़ और लक्ष्मणगढ़ में भी सैंकड़ों मनमोहक हवेलियाँ हैं | पर्यटकों की बढती संख्या देख कर भी हवेलियों के मालिक भी इनकी सुध लेने से बेसुध बैठे हैं |  शायद सभी हवेलियाँ खुशनसीब नहीं हैं | जहाँ सालों पहले बिडला से लेकर गोयनका,खेतान,मोदी,मित्तल, सिंघानिया,बजाज, पोद्दार,नेवटिया,गनेडीवाल,देवडा, केडिया,भरतिया, चमडिया, डालमिया परिवारों के वंशजों की किलकारियां गूंजती थीं,वहीँ आज इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है | कहते हैं नगर सेठों की विशाल हवेलियों में कभी नौकरों चाकरों के परिवार का इतना हुजूम रहता था क़ि इन हवेलियों की रसोई दिन के आठों पहर कड़ाही कूंचिये की आवाजों से गुलजार रहती थी  और आज हालत यह है क़ि इन हवेलियों के कमरों पर लगे तालों के जालों तक को साफ़ करने वाला कोई नहीं है |  कुछ केवल चौकीदारों के भरोसे चल रहीं हैं तो कुछ पर सिर्फ ताले लटक रहे हैं | हवेलियाँ कहीं प्रशासन की उपेक्षा का शिकार बनी हुई हैं तो कहीं अतिक्रमण और भूमाफियों के चंगुल में फंस कर रह गयीं हैं | इन सबके बावजूद भी यह एक ऐसी संपत्ति है, जिस पर अगर ध्यान दिया जाए तो पर्यटकों को चुम्बक की मानिंद अपनी ओर खींच सकती है  | हवेलियों का पुनर्स्थापन अपनी पारंपरिक धरोहर को तो संरक्षित करेगा  ही साथ ही साथ क्षेत्र के सरपट विकास में भी महती भूमिका निभाएगा, अब इन्तजार तो बस इस बात का है क़ि ये कुम्भ्करणी नींद कभी टूटेगी या फिर इस अनमोल धरोहर को अपने साथ ले डूबेगी |