Wednesday, September 15, 2010

मोरा पिया मोसे बोलत नाँही

हालिया रिलीज फिल्म राजनीति का यह प्रसिद्ध गीत सुनकर मुझे ऐसा लगा मानो ये गीत फतेहपुर की सूनी पडी हवेलियों के लिए ही लिखा गया है | कभी रजवाडी शान औ शौकत की पर्याय रही ये हवेलियाँ अपने चिर यौवन काल में सेठों और नौकरों चाकरों से भरी पडी रहती थी | नगर सेठों की शान की प्रतीक एक से एक नयनाभिराम हवेलियाँ सुर्ख लाल जोड़े में सजी दुल्हन सी अपनी रंगत पर कभी इतराती थी, कभी शर्माती थी, किन्तु आज इन्हें देख कर ऐसा लगता है मानो सर से पाँव तक सफ़ेद साड़ी  पहने अपने वैधव्य को कोस रही हों |


इतिहास की पृष्ठ भूमि में जाकर टटोले तो व्यापारिक उद्देश्य से धीरे धीरे एक एक करके सभी हवेलियों के सेठ महानगरों में जाकर बसते रहे और हवेलियाँ सूनी होती रहीं |  जब तक वे सेठ खुद ज़िंदा थे, उनका मोह यहाँ की मिटटी में बरकरार था किन्तु शनै - शनै तीन चार पीढियां गुजर जाने के बाद आज की जेनरेशन में वह मोह लुप्त हो गया है | आज की वह जेनरेशन जिनके  परिवार को अपनी माटी छोड़े तीन चार पीढियां गुजर चुकी हैं, उन्हें यहाँ के रेतीले टीले और कच्ची गलियाँ  अब सुहाते नहीं हैं | अपनी जन्म भूमि में आना  उन्हें जी का जंजाल सा लगने लगा है | साल में एक या दो बार जब उन्हें समय मिलता भी है तो वे इधर का रुख करने की बजाय किसी विदेशी पर्यटन स्थल पर जाना अधिक पसंद करते हैं | 

हालिया दिनों में यहाँ से गए लोगों में जरुर माटी का मोह बरकरार है लेकिन तीन चार पीढियां गुजरने के बाद कमोबेश यही हालत उनके परिवार की भी होनी है | अगर इस दशा से बचना है तो जल्द ही इस दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे अन्यथा  सूनी पडी हवेलियाँ पथराये नैनों से बाट जोहती मानो हमेशा यही कहती रहेंगी 
' मोरा पिया मोसे बोलत नाँही ' |

Saturday, September 4, 2010

भादी मावस पे खुलती हैं हवेलियाँ

समूचा शेखावाटी संभाग  कलात्मक हवेलियों के कारण पुरे विश्व में प्रसिद्ध रहा है. यहाँ का पर्यटन व्यवसाय केवल इन हवेलियों पर ही टिका हुआ है. अगर ये हवेलियाँ यहाँ नहीं रही होती तो कोई विदेशी यहाँ रूद्र, नीरस,तप्त हरियाली विहीन क्षेत्र में आना पसंद नहीं करता. राजस्थान के पर्यटन नक़्शे से यह भाग कटा हुआ होता. जो भी विदेशी सैलानी यहाँ आता है, निरंतर भग्न होती जा रही इन हवेलियों के कलात्मक वैभव को निहारता है, प्रसन्न होता है, फिर इस अनोखी धरोहर के क्षरण पर अफ़सोस प्रकट करता है. वह कहता है- सरकार और नागरिको को इस अनमोल धरोहर को बचाना चाहिए, वे इस ओर तत्पर क्यों नहीं है? कतिपय सैलानी किसी हवेली के बाहरी दृश्यों पर मुग्ध होने के बाद उसे भीतर से देखने क़ि इच्छा प्रकट करता है, किन्तु वह ताले के पार बंद हवेली को देख नहीं सकता. वह पूछता है यहाँ के गाइडों को क़ि यह हवेली कब खुलेगी? तो जवाब मिलता है- भादी मावस को. भाद्रपद क़ि अमावस्या के दो दिन पहले हवेली खुल भी सकती है- ऐसा विश्वास यहाँ के स्थानीय वाशिंदों को रहा है. 

कई बार यह विश्वास टूट भी जाता है- भादी मावस को भी हवेली मालिक सेठ नहीं आता है. अगर कोई हवेली मालिक आता भी है तो वह हवेली के भीतर के तालों क़ि जांच करने के लिए आता है. प्रवास में ए. सी. में रहने वाले हवेली मालिको के लिए हवेली का घुटन और उमस भरा वातावरण असहनीय होता है. इसलिए यहाँ आकर भी अत्याधुनिक भवनों में रुकते है. बहुत थोड़े से लोग ऐसे भी है जो अपनी हवेली में ठहरना पसंद करते हैं. ये हवेलियाँ वे हैं जिनमे चौकीदार अथवा मुनीम क़ि व्यवस्था है. कैसी विडम्बना है क़ि कुछ ही दशक पूर्व जिन हवेलियों में जीवन स्पंदित होता था,वे अब नितांत सूनी हैं तथा अपने मालिकों क़ि उपेक्षा का भार ढो रही हैं. उनके पलस्तर दिख रहे हैं. सूअर सेंध मार कर रहे हैं. चोर कोरनी किये हुए बहुमूल्य दरवाजे चुरा कर ले जा रहे हैं. कहना उचित नहीं होगा- घोर अवहेलना क़ि शिकार यह धरोहर थोड़े ही अरसे में सिमट जानी है और इसकी जगह सीमेंट कंकरीट का जंगल उग जाएगा. कितनी अच्छी हवेलियों की जगह आज व्यवसायिक कोम्प्लेक्स बन गए हैं. यही नियति दूसरी हवेलियों की होनी है.